History/City Profile
वैर क्षेत्र में नगरपालिका का निर्माण स्वतंत्रता प्राप्ति से पूर्व सन 1907 में हुआ था। वर्तमान में नगरपालिका वैर मुख्य बाजार में स्थित है तथा आम जन की पहॅुंच में है। वैर कस्बा की वर्तमान जनसंख्या 19376 है तथा यह 08 किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है।
भरतपुर जिले में वैर कस्बा, बयाना रेलवे स्टेशन से पश्चिम दिशा में 20 किलोमीटर दूर एवं राष्ट्रीय राजमार्ग सं0 11 पर स्थित छौकरवाडा से 19 किलोमीटर की दूरी पर बस हुआ है। जिसका इतिहास रमणीय एवं गौरवशाली रहा है। इस नगरी की प्राचीनता की पुष्टि यहॉं से प्राप्त चक्रेश्वरी की जैन मूर्ति, जो भ्ररतपुर संग्राहालय में स्थित है, से होती है। यह कितवन्ती है कि वहॉं पहले बेर (एक फलदार व्रक्ष) होते थे। तथा यहाॅ बेरों का जंगल था, इसलिए इसका नाम वैर पडा। यह भी कहॉ जाता है कि मराठाओं ने इस नगरी को बसाया था1 इस ऐतिहासिक जानकारी हमें भरतपुर के महाराजा बदनसिंह के समय से मिलती है।
महाराजा बदनसिंह के 26 पुत्र थे। जिनमें सूरजमल को भरतपुर एवं प्रतापसिंह को वैर की गददी का वारिस बनाया। सन 1926 ई0 में बदनसिंह ने अपने पुत्र प्रतापसिंह के लिए वैर का किला बनवाया। जो कि बहुत सुदृढ, भव्य एवं सुरक्षित किला है। यह धरातल से 70 फीट की उँंचाई पर स्थित है। जिसमें 8 बुर्ज, जनाना, महल, ब्रज दूल्है मन्दिर, जाल का कुंआ, राजा की कचहरी, दरवाजे के पास घुडसा, कॉच का महल, एक बाराहदरी एवं दो कुण्ड अवस्थित हैं। इसी के साथ किले के चारों ओर प्रताप नहर जिसे प्रताप गंगा भी कहते हैं, बनवाई गई तथा नोलखा बाग, फूलवाडी, इसमे बना हुआ सफेद महल एवं लाल महल किले की पश्चिमी दिशा में बनवाए। नगर की सुरक्षा को दृष्टिगत रखते हुए मिट्टी की चहारदीवारी एवं पाँच दरवाजे बनाए यथा बयाना दरवाजा, भुसावर दरवाजा, भरतपुर दरवाजा, सीता दरवाजा एवं कुम्हेर दरवाजा। सिंचाई एवं जल की व्यवस्था हेतु उत्तर एवं दक्षिण दिशा में दो बावडियॉं बनाई।
राजा प्रतापसिंह ने काशी ने काशी से अनेक प्रकाण्ड विद्वानों को वैर में बुलवाया और यहॉं बसाया एवं यहॉं अनेक मन्दिरों का निर्माण हुआ। इसलिए वैर को लघुकाशी के नाम से भी जाना जाता है।
इसी लघुकाशी वैर में महान संत बाबा मनोहरदास हुए, जिन्होंने अपने पावन एवं सदविचारों से लोगों को अपना जीवन सफल बनाने हेतु प्रेरित किया और यही पाव स्थल महान विचार, कवि एवं प्रकाण्ड विद्वान डॉं0 रांगेय राघव की जन्म एवं कर्मभूमि भी है। जिन्होंने अपने अल्पकालीन जीवन (1923-1962ई0) में ही अनेकों उपन्यास, कहानियॉं, कवतिाऐं, समालोचनाऐं लिखी जिसमें कब तक पुकारूँ प्रसिद्व उपन्यास रहा है। उन्होंने अपने क़तित्व से वैर का नाम भारत वर्ष में अमर कर दिया।